Saturday, January 8, 2011

Anunaaad

एक ही कक्षा में,

एक ही दिशा में,

एक ही धुरी पर ,

एक ही तरह से घुमते हुए,

पृथ्वी भी कभी ऊब जाती होगी,

तभी फिर चाँद को छुपा कर,

कभी सूरज को ओढ़ कर

खेल खेला करती है ,

विविध -विचित्र ....
..,




और कभी घोर नैराश्य में डूब जाती होगी,

अंतस में कचोटते अवसाद ,

उत्खनन की पीढ़ा भी होगी .. क्षत -विक्षत अंगों में ,

तभी फिर विचलित होती है

कभी कराहती है ,थरथराती है,

जब दर्द उठता होगा कहीं . .

जब अंक में कुछ बल घट जाता होगा ..//




फिर सहसा ही ख़याल आता है, कहते कहते ..

सुनने वाले भी कुछ अचरज में हों शायद,

धरती की वेदना से ,

किसी का हृदय - संचार क्यों सहवास करने लगा . .

तब स्व के भाव में आकर ..कहता हूँ ,

ये कुछ नहीं ..

बस इक स्वार्थपोषित प्रयास है

अपनी घुटन को ,

एक दुसरे उबास से अनुनादित करने का ..!

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